Last Updated on फ़रवरी 21, 2023 by Neelam Singh
भारत में किन्नरों का इतिहास बहुत गौरवशाली रहा है। महाभारत के समय जहाँ शिखंडी का वर्णन मिलता है, तो वहीं दूसरी ओर तुर्क, अफगान एवं मुगल शासकों के समय किन्नर शाही हरम का महत्वपूर्ण अंग हुआ करते थे। लेकिन वक्त के साथ किन्नरों की स्थिति दयनीय होती गई और बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार ब्रिटिश राज में तो किन्नरों को अपनी सुरक्षा के लिए अन्य राज्यों से सहायता लेने पड़ी थी। ब्रिटिशों ने किन्नरों से भूमि के अधिकार छीन लिए और किन्नरों का खून के रिश्तों पर आधारित कोई जैविक आधार नहीं रह गया था। आज जब किन्नर समुदाय अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं तब यह जानना आवश्यक है कि आजादी के बाद किन्नरों की स्तिथि में क्या बदलाव आया है।
जनगणना में किन्नरों को किया गया शामिल
देश के आजाद होने के करीब 64 साल बाद साल 2011 की जनगणना में किन्नर समुदाय को भी शामिल किया गया। साल 2011 जनगणना के अनुसार भारत में 4,87,803 किन्नरों (4.9 लाख) की जनसंख्या को दर्ज किया गया, जिनमें से अधिकांश उत्तरी राज्य उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखते हैं।
उसके बाद साल 15 अप्रैल 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि अब किन्नरों को तीसरी श्रेणी में शामिल किया जाएगा, मतलब अब सभी प्रकार के आवेदन पत्रों में महिला, पुरुष के अलावा भी एक कॉलम होगा जहां लिखा होगा तीसरी श्रेणी या थर्ड जेंडर। सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद किन्नरों को ऐसा दर्जा देने वाला भारत दुनिया का पहला देश बन गया है। सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 14, 16 और 21 का हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किन्नर भी देश के नागरिक हैं इसलिए शिक्षा, रोजगार एवं सामाजिक स्वीकार्यता पर उनका समान अधिकार है।
हालांकि समाज द्वारा अब भी इन्हें पूरी तरह से स्वीकार्यता नहीं मिल सकी है और यही कारण है कि जब कोई व्यक्ति इन्हें रास्ते में देख लेता है, तब बार-बार उसकी नजरें किन्नरों की ओर ही मुड़ती जाती है जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए। वर्तमान समय में किन्नरों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए केंद्र सरकार द्वारा उन्हें पहचान पत्र दिए जाने की घोषणा हो रही है, जिससे उन्हें कई सरकारी योजनाओं का लाभ लेने में आसानी हो सके।
समाज में किन्नरों को लेकर कई चुनौतियां हैं, जैसे-
- अगर कोई माता-पिता किन्नर बच्चे को जन्म के बाद अपनाना भी चाहते हैं, तब भी वे ऐसा नहीं कर पाते क्योंकि युवावस्था में कदम रखते ही शारीरिक एवं मानसिक बदलावों के कारण समाज द्वारा उन्हें प्रताड़ित किया जाता है। यही कारण है कि उन्हें त्याग का दंश सहना पड़ता है।
- किन्नर समुदाय को स्वास्थ्य सुविधाएं देने के लिए प्रशिक्षित चिकित्सकों की कमी है, जो इनकी समस्याओं को संवेदनशीलता के साथ समझ सकें।
- आर्थिक तंगी के कारण किन्नर कई बार वेश्यावृत्ति की ओर रुख कर लेते हैं। National ibbs 2014-15 Hijras/transgender People – NACO रिपोर्ट के अनुसार किन्नर समुदायों में एचआईवी-एड्स के संक्रमण का खतरा सबसे ज्यादा है।
- साथ ही समाज एवं परिवार द्वारा अस्वीकार्यता मिलने के कारण कई बार मानसिक स्वास्थ्य पर भी बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है।
हिन्दी साहित्य में भी किन्नरों की दशा का मार्मिक चित्रण करते हुए कई उपन्सास लिखे गए हैं। महेंद्र भीष्म द्वारा लिखित किन्नर कथा में उपन्यास की मुख्य पात्र सोना एक किन्नर होने के कारण अपने पिता की घृणा का पात्र बनती है। उपन्यास में दर्शाया गया है कि जब तक उन्हें सोना की वास्तविकता ज्ञात नहीं होती, तब तक वे उससे प्रेम करते हैं लेकिन वास्तविकता पता चलने के बाद उसे मारने तक का आदेश दे डालते हैं।
महेंद्र भीष्म लिखते हैं, “लिंगोच्छेदन कर बनाए गए हिजड़ों को ‘छिबरा’ और नकली हिजड़ा बने मर्दों को ‘अबुआ’ कहते हैं। हिजड़ों की चार शाखाएं होती हैं- बुचरा, नीलिमा, मनसा और हंसा। बुचरा जन्मजात हिजड़ा होते हैं, नीलिमा स्वयं बनते हैं, मनसा स्वेच्छा से शामिल होते हैं तथा हंसा शारीरिक कमी के कारण बने हिजड़े होते हैं।”
वहीं चित्रा मुदग्ल लिखित उपन्यास पोस्ट ऑफिस नं. 203 नाला सोपारा का मुख्य पात्र विनोद एक किन्नर है और वह अपनी बा से बहुत प्यार करता है लेकिन वह अपने परिवार को छोड़कर किन्नरों के बीच रहने के लिए मजबूर है। उस तरह और भी कई उपन्यास हैं, जैसे- प्रदीप सौरभ द्वारा लिखित तीसरी ताली, नीरजा माधव लिखित यमदीप उपन्यास में भी किन्नरों की स्थिति को दर्शाने की कोशिश की गई है।
कुल मिलाकर उपन्यासों द्वारा चित्रित किया गया है कि एक ओर परिवार किन्नरों को तिरस्कृत कर देता है, तो वहीं दूसरी ओर अगर परिवार रखना भी चाहे तब भी समाज उन्हें बहिष्कृत ही मानता है। आज किन्नरों को उनका हक दिलाने के लिए कई संस्थाएं एवं कार्यकर्त्ता कार्य कर रहे हैं, जिससे स्थितियां थोड़ी बदली जरुर है।
किन्नर समुदाय का उत्थान करना है लक्ष्य
किन्नर अखाड़ा की महामंडलेश्वर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी ने डीडी नेशनल को दिए साक्षात्कार में बताया, “हर किसी के अंदर स्त्रीत्व का अंश है, अब अगर कोई स्त्रीत्व को उभारना चाहता है, और उसे अपनाना चाहता है, तब लोगों को क्यों दिक्कत होती है?”
एक अन्य वेबसाइट पर प्रकाशित उनके साक्षात्कार के अनुसार वे बताती हैं, “मेरा बचपन में शारीरिक शोषण हुआ और तिरस्कार भी मिला लेकिन मेरे माता-पिता ने मैं जैसी थी, वैसा ही मुझे स्वीकार किया। आज मैं जो भी हूं, उनकी वजह से ही हूं। मेरी मां कहती थीं, “देसी घी का लड्डू टेढ़ा भी सही रहता है।” मुझसे ज्यादा संघर्ष मेरे माता-पिता ने किया। वे चाहती हैं कि समाज में किन्नरों के प्रति धारणा में वास्तविक बदलाव आए। प्राचीन काल में हमारा स्थान ‘उपदेवता’ का था लेकिन हमें भीख मांगने और शरीर बेचने के लिए मजबूर किया गया।
किन्नर अखाड़ा अपनी खोई हुई गरिमा को फिर से हासिल करने की कोशिश कर रहा है। साथ ही महामंडलेश्वर अखाड़े में महिलाएं भी हैं और पुरुष भी हैं ताकि किसी में भी भेदभाव ना हो। अखाड़े का एकमात्र उद्देश्य किन्नर समुदाय का उत्थान करना है और समाज में उनकी खोई हुई जगह को फिर से हासिल करना है। हालांकि अपने अस्तित्व और पहचान को लेकर वे बताती हैं, मैंने हमेशा खुद को एक छोटा बच्चा समझा। वो समाज ही था, जिसने मुझे अलग अलग नामों से बुलाया और तब मुझे लगा कि मैं नॉर्मल नहीं हूं। उसके बाद ही मैंने अपने अस्तित्व की खोज की और दुनिया को बताया कि मैं कौन हूं।”
उम्मीद है कि धीरे ही सही लेकिन वक्त के साथ और बदलाव सामने आएंगे एवं किन्नर समुदाय को उनका हक मिलेगा।
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