अपनी खूबसूरती, शांत वातावरण और मनमोहक दृश्यों के लिए उत्तराखंड को ‘देवभूमि’ के नाम से भी जाना जाता है। यहां हर साल लाखों श्रद्धालु घूमने आते हैं, जिस कारण इसे उत्तर भारत का बेहद ही खूबसूरत और शांत पर्यटन केंद्र भी माना जाता है। पृथ्वी का स्वर्ग कहलाए जाने वाले उत्तराखंड की झील-झरने, हिमालय, मनोरम वादियों और तालों को देखना बेहद सुकूनदायक है लेकिन क्या आपने एक पल ठहर कर वहां रहने वाले लोगों के बारे में सोचा है?
उत्तराखंड की सेहत का हाल
उत्तराखंड राज्य का गठन हुए 21 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं परन्तु आज भी पहाड़ी क्षेत्रों के ग्रामवासी छोटी-छोटी बीमारियों के लिए मैदानी जिलों के अस्पतालों पर निर्भर हैं। राज्य में डाॅक्टरों की कमी व आधुनिक सुविधाओं का अभाव साल 2021-22 के बजट से उजागर हो जाता है, जहां बजट के अनुसार राज्य के स्वास्थ्य विभागों में 24451 राजपत्रित और अराजपत्रित पद स्वीकृत हैं, जिसमें 8242 पद रिक्त हैं और स्वीकृत पदों का मात्र 34 प्रतिशत है।
रूरल हेल्थ स्टेटिस्टिक्स रिर्पोट 2019-20 के आंकड़ों के अनुसार राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में 1839 उपकेन्द्र हैं, जिनमें 543 उपकेन्द्रों के पास अपनी जगह व ईमारत ही नहीं है। इसके अलावा कुल 257 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में से 30 के पास अपनी जगह नहीं है। इंडियन पब्लिक हेल्थ स्टेंडर्स के मानकों के अनुसार प्रत्येक सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र में चार विशेषज्ञ सर्जन, प्रसूति, स्त्री रोग विशेषज्ञ के साथ बाल रोग व चिकित्सा विशेषज्ञ होते हैं मगर राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों का दुर्भाग्य है कि किसी भी सामूदायिक स्वास्थ्य केन्द्र में यह सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं।
उत्तराखंड में हावी झोलाछाप पद्धति
पहाड़पानी के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र के डाॅक्टर संजीव अग्रवाल बताते हैं कि पर्वतीय क्षेत्रों में अधिकांश स्वास्थ केन्द्र आधुनिक सुविधाओं से वंचित हैं, जिसका खामियाजा यहां के ग्रामवासियों को भुगतना पड़ता है। सुविधाओं के अभाव के कारण अक्सर मरीजों को मैदानों इलाकों की ओर रूख करना पड़ता है। एक्स रे, अल्ट्रासाउंड इत्यादि की व्यवस्था न होने व डाॅक्टरों की कमी के कारण ग्रामवासी झोलाछाप इलाज पद्धति की ओर रुख करने लगे हैं। (जहाँ अप्रशिक्षित व्यक्ति सीधे सादे गांव वालों का इलाज करने लगता है। ऐसे लोग डाॅक्टर तो नहीं होते हैं लेकिन डॉक्टरों के साथ काम किया होने के कारण हल्का फुल्का इलाज जानकर सामान्य दवा देते हैं।)
यदि ग्रामवासियों को नजदीकी स्तर पर प्राथमिक सुविधाएं मिल जाएंगी तो वे पलायन और व्यर्थ के आर्थिक खर्चों से बच जाएंगे। डाॅक्टर अग्रवाल आगे बताते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में सबसे अधिक प्रसव के केस होते हैं मगर सुविधाओं के अभाव में इन्हें अन्य बड़े अस्पतालों को रेफर कर दिया जाता है। इस पर विचार किए जाने की आवश्यकता है क्योंकि एक महिला के स्वास्थ्य के साथ एक और जिंदगी जुड़ी होती है लेकिन लोग इस बात को लेकर जागरूक नहीं हो रहे हैं। साथ ही ग्राम स्तर पर शिविरों के माध्यम से लोगों को प्राथमिक उपचार के बारे में जागरूक किया जाना चाहिए ताकि लोग स्वयं भी जरुरत पड़ने पर प्राथमिक उपाय कर सकें।
पहाड़ी इलाकों में प्रसव है समस्या
ग्राम सिरसोड़ा, लमगड़ा, अल्मोड़ा से गणेश वर्मा की पत्नी ममता देवी बताती हैं कि उन्हें प्रसव के दौरान ग्राम में किसी भी प्रकार की सुविधा न होने के कारण अत्यधिक पीड़ा का सामना करना पड़ा और प्रसव हेतु ग्राम से 65 किमी दूर अल्मोड़ा में जाना पड़ा, जहां उन्हें काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा था। यह पर्वतीय क्षेत्रों की हर महिला की कहानी है। सरकार द्वारा ग्राम स्तर पर संचालित प्राथमिक/सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में इन सुविधाओं को मुहैया करवाना चाहिए जिससे नजदीकी स्तर पर सुविधाओं का लाभ मिल सके व अन्यत्र खर्च से भी बचाव हो सके।
डॉक्टरों को नापसंद पहाड़ी इलाके
भारतीय रिर्जव बैंक की स्टेट फाइनेंस ए स्टडी ऑफ बजट 2020-21 रिपोर्ट के अनुसार हिमालयी राज्यों में उत्तराखण्ड सरकार द्वारा स्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च किया जाता है। राजकीय मेडिकल काॅलेज से उपाधि लेने वाले डाॅक्टर भी पहाड़ों पर तबादला होने से कतराते हैं क्योंकि पहाड़ी इलाकों में भूस्खलन का डर ज्यादा होता है। हालांकि सरकार द्वारा पहाड़ों में डाॅक्टरों की कमी को पूरा करने हेतु बाॅन्ड सिस्टम भी शुरू किया गया है, जिसमें राजकीय मेडिकल में दाखिला लेने वाले छात्रों की फीस में छूूट दी जाती है। साथ ही पांच वर्ष पहाड़ों पर पोस्टिंग का बाॅन्ड किया जाता है।
एम्बुलेंस के इंतजार में प्रसव
ग्राम नाई, ओखलकाण्डा के महेश नयाल बताते हैं “स्वास्थ्य केन्द्रों में सामान्य सर्दी, बुखार का इलाज तो मिल जाता है मगर एक्सरे, अल्ट्रासाउण्ड, टांका, फ्रैक्चर जैसी सुविधाओं से लोग वंचित रह जाते हैं और इन सबके लिए नजदीकी हल्द्वानी 90 किमी की ओर ही रूख करना पडता है।” उनकी पत्नी हंसी देवी को प्रसव पीड़ा होने पर 55 किमी दूर प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र पदमपुरी ले जाया गया था, जहां डाॅक्टरों द्वारा स्थिति गंभीर की बात कहकर हल्द्वानी के लिए रेफर कर दिया गया था मगर अस्पताल से एम्बुलेन्स आने का इंतज़ार करते करते ही उनकी पत्नी ने बच्चे को जन्म दे दिया। यह सिर्फ डाॅक्टरों द्वारा अपने कार्य के प्रति लापरवाही को दर्शाता है।
आरोही संस्था कर रही कार्य

राज्य के पर्वतीय क्षेत्र में आरोही संस्था ग्रामीण समुदाय के लिए स्वास्थ्य विभाग की कमी को पूरा करने का कार्य कर रही है। संस्था द्वारा वर्ष 2019-20 में 19 स्वास्थ्य मेलों का आयोजन किया था, जिसमें 3062 ग्रामीणों ने स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ लिया। साथ ही प्रतिमाह दूरस्थ ग्रामीण वासियों के लिए 09 सचल चिकित्सा शिविरों का आयोजन किया जाता है, जिसमें ग्राम वासियों की स्वास्थ्य जांच की जाती है। साथ ही ग्रामीण गर्भवती महिलाओं का कम दामों में अल्ट्रासाउंड होता है, जो वर्तमान समय में पर्वतीय समुदाय की महिलाओं के लिए सबसे बड़ी समस्या है। संस्था के शिविर ग्रामों के नजदीकी होने से अन्यत्र व्यय से भी बचत होती है।
पर्वतीय क्षेत्रों में महिलाओं व बच्चों के इलाज के लिए डाॅक्टरों का अभाव सर्वाधिक है। राज्य में पर्वतीय जिलों में खस्ताहाल स्वास्थ्य सेवाओं के चलते ऐसी कई कहानियां हैं जहाँ मरीजों को सही समय में एम्बुलेंस न मिलना, उचित उपचार की कमी, डाॅक्टरों की सीमित उपलब्धता, ग्रामों से स्वास्थ्य विभागों की दूरी व कई अन्य सामान्य कारणों के चलते अपनी जान से हाथ तक धोना पड़ा है। कहीं ऐसा ना हो कि पहाड़ी खूबसूरती के पीछे इन महिलाओं और अन्य लोगों की सिसकियां घुटन ना बन जाए इसलिए वक्त रहते बदलाव आना बेहद जरुरी है।
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