महिलाओं पर ही क्यों है ‘परिवार नियोजन’ का भार?

छत्तीसगढ़ हो या बिहार या देश का कोई भी कोना, महिला स्वास्थ्य और नसबंदी को लेकर हर जगह की व्यवस्था चरमराई ही प्रतीत होती है..

Last Updated on फ़रवरी 2, 2023 by Neelam Singh

नेशनल फैमिली हेल्‍थ सर्वे-5 के अनुसार भारत में परिवार नियोजन के तहत 37.9% महिलाओं ने नसबंदी कराई है। वहीं सिर्फ 0.3% पुरुषों ने नसबंदी कराने का फैसला लिया है। अमूमन देश के हर एक राज्य में नसबंदी को लेकर पुरुषों में उदासीनता साफ झलकती है। नसबंदी का अर्थ है, सर्जिकल तरीके से बच्चा होने की प्रक्रिया को हमेशा के लिए रोक देना। महिलाओं के लिए इसे tubectomy और पुरुषों के लिए vasectomy कहा जाता है। 

जानीपुर गांव, फुलवारीशरीफ, पटना, में कार्यरत आशा कार्यकर्ता रीता देवी ने बताया, “अमूमन महिलाएं स्वयं ही नसबंदी कराने के लिए तैयार रहती हैं। पुरुषों के विषय में उनका मानना है कि मर्द का काम बाहर जाकर कमाना है ताकि घर का खर्चा चल सके अगर मर्द नसबंदी करा लेंगे तो वे कमजोर हो जाएंगे। कई महिलाएं दो टूक जवाब देती हैं, ‘मैं अपने पति को परेशान नहीं करना चाहती।’ ”

asha worker

मर्दो को कमजोरी का डर

वहीं 22 वर्षीय ममता (काल्पनिक नाम) ने बताया कि उनके दो बच्चे हैं। पहला डेढ़ साल का बेटा और दूसरी 6 महीने की बेटी है। मैं अब बच्चा नहीं चाहती लेकिन मेरे पति इसके लिए तैयार नहीं हैं। वे ना अपनी नसबंदी करा रहे हैं और ना मुझे ऑपरेशन कराने दे रहे हैं लेकिन मैं अब बच्चा नहीं करना चाहती इसलिए मैं अपना ऑपरेशन करा लूंगी।” उनके पति से जब पूछा गया कि वे नसबंदी क्यों नहीं कराना चाहते तो इस पर उन्होंने कहा, “मुझे डर लगता है क्योंकि मर्दों को कमजोरी हो जाती है।”

जहां एक तरफ अधिकांश पुरुष नसबंदी करवाने से कतराते हैं वहीं दूसरी ओर अधिकांश महिलाएं ऑपरेशन कराने से जरा भी नहीं हिचकती। भले ही नसबंदी के लिए सरकार की ओर से पुरुषों को महिलाओं के मुकाबले ज़्यादा पैसा दिया जाता है फिर भी पुरुष नसबंदी में बढ़-चढ़कर भाग नहीं लेते। 

क्यों है ये जिम्मेदारी औरतों के हिस्से में?

जानीपुर गांव, फुलवारीशरीफ के रहने वाले पेशे से मजदूर 28 वर्षीय राजेश का मानना है कि ये सब औरतों का काम है, ऑपरेशन कराना और अस्पताल जाना क्योंकि औरतों को घर पर रहना है लेकिन हमको बाहर जाकर कमाना है और अगर ऑपरेशन से कुछ हो गया तब घर कौन देखेगा। इसलिए ये सब औरतों की चीजें हैं।

भले ही राजेश की सोच महिलाओं के विषय में संकीर्ण हो लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं माना है कि घरेलू (घर का काम करने वाली) महिलाएं, जो अपने घर पर काम करती हैं जैसे- खाना बनाना, साफ-सफाई करना, पशुओं की देखभाल करना या घर में बड़े-बुजुर्गों की देखभाल करना वे सब भी आर्थिक सहयोग के दायरे में ही आते हैं। सीधे तौर पर ना सही लेकिन घर की आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाने का काम महिलाएं भी करती हैं। भले इसकी आर्थिक गणना ना हो।

पुरुषों में व्याप्त धारणाएं 

नसबंदी को लेकर पुरुषों में अनेक गलत धारणाएं हैं। जैसे – नसबंदी कराने के बाद उनकी शक्ति में कमी आ जाएगी। दूसरी यह कि समाज में बच्चा पैदा करने वाले पुरुष को ही मर्द माना जाता है और जो पुरुष बच्चा पैदा ना कर सके उसे नामर्द/नपुंसक कहकर अपमानित किया जाता है। साथ ही पितृसत्तातमक समाज में पुरुषों का अहम् नसबंदी के आड़े आता है और अंततः स्त्रियों को ही ये जिम्मेदारी दी जाती है। 

हमारे समाज में पुरुषों के लिए उनकी मर्दानगी ही उनकी इज्जत है और जब इज्जत ही नहीं रहेगी, तब वे पैसे लेकर क्या करेंगे इसलिए भले ही नसबंदी कराने के लिए पुरुषों को ज्यादा पैसे दिए जाते हो मगर वे अपनी इज्जत के साथ समझौता नहीं होने देंगे। सामाजिक कारणों और रूढ़िवादी मानसिकता के कारण पुरुष नसबंदी नहीं कराना चाहते। इसके अलावा स्वास्थ्य सुविधाओं में कमी और जागरुकता का अभाव भी एक मुख्य कारण बनता है। 

जन स्‍वास्‍थ्‍य अभ‍ियान के राष्‍ट्रीय सह संयोजक अमूल्‍य न‍िध‍ि कहते हैं, “पुरुषों में नसबंदी कम होने के पीछे दो मुख्य कारण हैं पहला यह कि ग्रामीण क्षेत्रों में ‘पुरुष हेल्थ वर्कर्स’ की कमी है। गांव में आशा और एएनएम महिलाएं हैं, जिनका पूरा ध्यान महिलाओं और बच्चों पर होता है। ऐसे में पुरुषों की जागरूकता का काम प्रभावित होता है। दूसरा कारण है कि पुरुष नसबंदी कम होने पर किसी भी अधिकारी की जवाबदेही तय नहीं होती। संविधान में लिखा है कि पुरुष और महिला में भेद नहीं है लेकिन जहां भेद हो रहा उसे दूर करने के उपाय भी नहीं सोचे जा रहे।”

बिना एनसथिसिया कर दिया ऑपरेशन 

शायद आपको अररिया, बिहार का साल 2012 का केस याद हो, जहां केवल 2 घंटों में 53 महिलाओं की नसबंदी की गई थी। बिलासपुर छत्तीसगढ़, साल  2014 का केस, जहां शिविर में नसबंदी कराने गई महिलाओं को उचित देखभाल एवं चिकित्सीय सुविधाएं नहीं मिली, जिस कारण 11 महिलाओं ने अपना दम तोड़ दिया। हालिया केस फिर खगड़िया बिहार साल 2022 का सामने आया है, जहां बिना एनसथीसिया दिए 23 महिलाओं का ऑपरेशन कर दिया गया। इनमें से बिहार के खगड़िया ज़िले के अलौली प्रखंड की रहने वाली कुमारी प्रतिमा का वीडियो वायरल हो गया। 

प्रतिमा बताती हैं, “ऑपरेशन वाली जगह पर कोई सुविधा नहीं थी। वहां केवल चार बेड थे, जिसमें दो बेड पर महिलाएं दर्द से चिल्ला रही थीं। हम नर्स से पूछे कि इसको दर्द क्यूँ हो रहा है, तो उसने कहा कि वो महिला नशा करती है इसलिए उसको दर्द हो रहा है। तुम नशा नहीं करती हो, तो तुम्हें दर्द नहीं होगा।”

वे आगे बताती हैं, “लेकिन जब डॉक्टर ऑपरेशन करने लगे तो मुझे असहनीय दर्द उठा। मैंने डॉक्टर से ऑपरेशन बंद करने के लिए कहा और दर्द से हाथ-पैर छटपटाने लगे। इस पर डॉक्टर ने चार-पांच आदमी को बुलाया और पकड़कर ऑपरेशन करके टांका लगा दिया और बाद में कमर पर सुई लगा दी।”   

साल 2016 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद नसबंदी शिविरों की जगह अब नसबंदी दिवस ने ले ली है क्योंकि शिविरों में महिलाओं के साथ अमानवीय तरीके से व्यवहार किया जाता था लेकिन अब भी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है। 

क्या है परहेज का असल कारण 

हेलो स्वास्थ्य द्वारा प्रकाशित आलेख के अनुसार पुरुष न तो नसबंदी कराना चाहते हैं और न ही परिवार नियोजन के अन्य तरीकों का इस्तेमाल। यूनिवर्सिटी ऑफ साउथहेम्पटन (University of Southampton) की एक स्टडी के अनुसार पुरुष कंडोम को शारीरिक सुख की बाधा की तरह देखते हैं और नसबंदी उन्हें मर्दांगी से समझौता लगती है। यही कारण है कि महिलाएं किसी भी तरह के अनचाहे गर्भ से बचने के लिए स्वयं अपनी नसबंदी करा लेती हैं। सदियों से चली आ रही पुरुष प्रधान मानसिकता कि पुरुष कमाएगा और महिला घर की देखभाल करेगी जैसी बातें महिलाओं को नसबंदी कराने पर मजबूर कर देती है।

महिला द्वारा झंझट खत्म करना 

गांवों में महिलाओं के पास अनचाहे गर्भ से बचने के लिए कोई साधन नहीं होते जिस कारण वे घरेलू उपाय करती हैं। जैसे – माहवारी होने के बाद या उसके पहले कुछ समय तक पति से दूर रहना और इसके लिए वे कई तरीके अपनाती हैं, जैसे- देर तक रसोई में काम करना, बच्चों का बहाना कर देना, पेट में दर्द होने की बात करना आदि क्योंकि महिलाओं के लिए कॉपर-टी लगवाना बहुत पीड़ादायक प्रक्रिया होती है।  

हालांकि बच्चे कितने करने हैं और कब करने हैं, इन सब मुद्दों पर महिला का निर्णय कोरे कागज पर हस्ताक्षर के समान होता है जहाँ उनका कोई भाग नहीं होता है लेकिन ऑपरेशन महिलाएं ही कराएंगी। इसी बात का फायदा एनजीओ, सरकारी या निजी अस्पताल वाले उठाते हैं और आंकड़ों के बल पर मोटी कमाई करते हैं। इस स्थिति में सुधार लाने के लिए जहां एक ओर महिलाओं को अपनी ये सोच बदलनी जरुरी है कि वे घर पर कोई काम नहीं करती बल्कि उन्हें अपने काम को भी उतना ही उपयोगी समझना होगा जितना वे अपने पति के काम को समझती हैं। 

साथ ही घर की अन्य महिला सदस्य जैसे – सास को भी अपने बेटे से बात करके उसे समझाना चाहिए कि पुरुष भी नसबंदी करा सकते हैं। इसके अतिरिक्त जिस प्रकार महिलाओं को आशा कार्यकर्ताओं और एएनएम के जरिए जागरुक किया जाता है, ठीक वैसे ही पुरुष कार्यकर्ताओं की सहभागिता बढ़ाई जानी चाहिए तभी महिला-पुरुष के एक समानता की बात सार्थक लगेगी वरना महिलाओं की चीख ऐसे ही दीवारों से टकराकर वापस आती रहेगी।  

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