क्या आपको भी सर्दियों में होती है ‘मूड खराब’ की समस्या?

प्रकृति और मनुष्य का बेहद गहरा संबंध होता है, जिस कारण बदलती ऋतुओं का प्रभाव भी मानव जीवन पर दिखाई देता है। सर्दियों का मौसम अनेक लोगों को बहुत पसंद आता है लेकिन इस मौसम का लोगों के स्वास्थय पर प्रतिकूल प्रभाव देखा जाता है। आइये जानते हैं इनके बारे में...

Last Updated on जनवरी 28, 2022 by Team THIP

30 वर्षीय शालिनी सर्दियां आते-आते काफी शांत रहने लगी। उसका किसी भी काम में मन नहीं लग रहा था और धीरे-धीरे उसे अकेलापन भाने लगा। पहले तो उसके घरवालों को लगा कि ये सामान्य है लेकिन धीरे-धीरे जब उसका गुस्सा बढ़ने लगा तब स्थिति बेहद गंभीर हो गई। जब घरवालों ने डॉक्टर को दिखाया तब पता चला कि शालिनी डिप्रेशन का शिकार है। घरवाले इस बात से बिल्कुल अचंभित हो गए कि हमेशा खुश रहने वाली शालिनी को डिप्रेशन कब हुआ? ऐसे केवल एक नहीं बल्कि कई उदाहरण हैं, जहां मौसम के बदलने के कारण लोगों में डिप्रेशन की समस्या बढ़ जाती है।

सर्दियों के मौसम में शुरू हुई इस स्थिति को सीजनल अफेक्टिव डिसऑर्डर (Seasonal Affective Disorder – SAD या Winter Blues) के नाम से भी जाना जाता है। यह डिप्रेशन यानी कि अवसाद की एक अलग इकाई के रूप में नहीं अपितु एक उप-प्रकार के रूप में देखा जाता है। यह पहले से ही अवसाद से ग्रसित लोगों में ज्यादा देखने को मिलता है।

देखा जाए तो, प्रकृति और मनुष्य का बेहद गहरा संबंध होता है, जिस कारण बदलती ऋतुओं का प्रभाव भी मानव जीवन पर दिखाई देता है। सर्दियों के मौसम की बात करें तो यह मौसम अनेक लोगों को बहुत पसंद आता है क्योंकि इस समय अलाव जलाकर बैठना या कंबल के अंदर सिकुड़े रहने में बहुत आनंद आता है मगर लोगों के स्वास्थ्य पर इस मौसम के अनेक प्रभाव देखे जाते हैं।

पुरुषों की तुलना में घरेलू महिलाओं में SAD की समस्या ज्यादा देखी जाती है क्योंकि महिलाओं का पूरा समय घरों के अंदर ही बीतता है। भले ही सर्दियों के मौसम में दिन छोटा हो जाता है लेकिन रोजमर्रा के कामों में कोई बदलाव नहीं होता, जिस कारण काम समय से पूरे नहीं हो पाते और धीरे-धीरे काम का बोझ बढ़ता चला जाता है, जिससे SAD की समस्या गहरी होते चली जाती है।

एसएडी के लक्षणों को जानें



मूड स्विंग की समस्या
डॉ. बिंदा सिंह

एसएडी के लक्षणों को पहचानना बेहद जरुरी है क्योंकि अधिकांश केसों में केवल नजरअंदाज करने के कारण स्थिति काफी बिगड़ जाती है। पटना, बिहार से क्लिनिकल साइकोलोजिस्ट डॉ. बिंदा सिंह बताती हैं कि “आमतौर पर एसएडी में मूड स्विंग की समस्या देखी जाती है, जो आगे चलकर डिप्रेशन का रूप ले लेती है। सर्दियों के मौसम में सूरज की पर्याप्त रौशनी नहीं मिलने के कारण हमारे मस्तिष्क में सेरोटोनिन केमिकल (एक प्रकार का न्यूरोट्रांसमीटर) का निर्माण कम होने लगता है, जिसका सीधा असर हमारे मूड पर पड़ता है और बात-बात पर ‘मूड खराब’ है, वाली फिलिंग आने लगती है। इससे धीरे-धीरे व्यक्ति को उदासी, बेचैनी और डिप्रेशन की समस्या महसूस होने लगती है लेकिन लोग इसे आम तरीके से ले लेते हैं, जिस कारण कुछ समय के बाद इसके बेहद गंभीर परिणाम सामने आते हैं।”

हमारे शरीर में सेरोटोनिन के उत्पादन में विटामिन डी मुख्य भूमिका निभाता है। सर्दियों के मौसम में हुई धूप की कमी के कारण विटामिन डी का उत्पादन भी पूरी तरह से नहीं हो पाता है, जिस कारण सुस्ती और आलस महसूस होने लगता है और इंसान आसपास के माहौल से कटने लगता है।

ज्यादा मात्रा में मेलाटोनिन का बनना

सर्दियों के मौसम में दिन छोटा और रातें लंबी हो जाती हैं, जिसका प्रभाव लोगों की दिनचर्या पर भी पड़ता है क्योंकि सोने तथा जागने का चक्र असंतुलित हो जाता है। यही कारण है, जिससे लोगों के अंदर थकान और चिड़चिड़ापन बढ़ जाता है। मेलाटोनिन का स्त्राव पीनियल ग्रंथि (Pineal Gland) से होता है, जो मुख्यतौर पर रात में ही एक्टिव होती है, जब हम लाइट बंद करके सोने जाते हैं। इस हॉर्मोन के स्त्राव के कारण ही नींद आने में मदद मिलती है लेकिन सर्दियों में सूरज की रोशनी कम मिलने के कारण मस्तिष्क ज्यादा मात्रा में मेलाटोनिन हार्मोन बनाने लगता है, जिससे उनींदापन बढ़ जाता है। साथ ही सर्दियों के मौसम में शारीरिक सक्रियता भी कम हो जाती है, जिस कारण थकान महसूस होती है। वहीं ध्यान न देने के कारण कभी-कभी यह थकावट और आलस गंभीर संकेत के रूप में उभरकर सामने आते हैं।

एसएडी के लक्षणों की अगर बात की जाए तो इसमें बेहद सामान्य लक्षण देखने को मिलते हैं। जैसे थकान, सिर दर्द, बात-बात पर गुस्सा आना, चिड़चिड़ापन बढ़ना, आलस, रोजमर्रा के कामों को करने में भी अरुचि होना, अकेलापन महसूस होना, भूख या वजन में बदलाव होना क्योंकि सर्दियों के समय लोगों के भोजन का समय भी असंतुलित हो जाता है।

एसएडी से कैसे करें बचाव?

एसएडी से बचने के लिए दवाओं का दामन थामने से बेहतर खुद के दिनचर्या में बदलाव लाना है। जैसे – सही समय से पौष्टिक भोजन करना, उन कामों को करना जिसमें आपकी रुचि है, अपना मनपसंद संगीत सुनना या अपनी हॉबी के लिए समय निकालना। साथ ही धूप निकलने पर सूरज की रोशनी में बैठना सबसे अच्छी दवा होती है। हालांकि कुछ जगहों पर सूरज के दर्शन होना ही दुर्लभ होता है, जिस कारण वहां रहने वाले लोगों का शरीर उसी परिस्थिति के अनुसार ढल जाता है।

डॉ. सुमिता कुमारी

अपने खानपान को दुरुस्त करने से एसएडी से लड़ाई आसान हो जाती है। पटना की डॉ. सुमिता कुमारी बताती हैं कि प्रोटीन और विटामिन से भरपूर भोजन लेने से एसएडी से बचा जा सकता है। जैसे – दाल, सोयाबीन, अंडा, लीन मीट प्रोटीन का बेहद अच्छा स्त्रोत है। साथ ही ओमेगा-3, फैटी एसिड, चिया सीड्स, फैलेक्स सीड, विटामिन-बी12 से भरपूर फल जैसे – सेब, केला, अनार आदि का सेवन किया जा सकता है। डिप्रेशन से बचने के लिए थोड़ी-थोड़ी मात्रा में डार्क चॉकलेट भी ली जा सकती है लेकिन तब जब मरीज का डायबिटीज नियंत्रित हो और उसे किडनी सी समस्या ना हो। धूप में बैठना सबसे अच्छा उपाय है, जिससे शरीर में विटामिन डी की पूर्ति होती है।

कब बैठे धूप सेंकने?

विटामिन डी के लिए सूरज की रोशनी में बैठना सबसे बेहतर और आसान विकल्प है लेकिन धूप में बैठने के लिए भी एक सही समय होना चाहिए ताकि शरीर धूप को सही तरीके से उपयोग कर सके। एक रिसर्च के अनुसार सर्दियों के मौसम में धूप सेंकने का सही समय सुबह 10:30 बजे से लेकर शाम के 4 बजे तक होता है लेकिन गर्मियों के मौसम में अल्ट्रावायलेट किरणों से बचाव का ध्यान रखना भी बहुत जरुरी हो जाता है इसलिए गर्मी के दिनों में सुबह उठने से लेकर 8-9 बजे तक धूप सेंकी जा सकती है। विटामिन-डी शरीर के लिए काफी फायदेमंद है। बशर्ते धूप सेंकते समय धूप की ओर पीठ करके बैठना और समय-समय पर अपना बैठने का तरीका बदलते रहना चाहिए। धूप सेंकते समय कुछ बातों का ध्यान रखना भी बहुत जरुरी होता है। जैसे – खाने के तुरंत बाद धूप में बैठने से बचें और 1-2 घंटों के बाद ही धूप में बैठें। ज्यादा देर तक धूप की रोशनी में बैठने से भी परहेज करना चाहिए क्योंकि अल्ट्रावायलेट किरणों के कारण रेटिना डैमेज होने का खतरा होता है, जिससे मोतियाबिंद का खतरा बढ़ जाता है और त्वचा पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

डॉ. बिंदा सिंह आगे बताती हैं कि लोगों के बीच मानसिक स्वास्थ्य को लेकर चुप्पी होने के कारण ही लोग डिप्रेशन को बहुत बड़ा मुद्दा बना लेते हैं। ऐसे में एसएडी को लेकर लोगों में जागरुकता का अभाव देखा जाता है। लेकिन लोगों को जागरूक करने की पहल स्कूल से ही शुरू होनी चाहिए। जैसे- बच्चों के पाठ्यक्रम में मानसिक स्वास्थ्य को एक अहम पाठ के तौर पर पढ़ाया जाना चाहिए। साथ ही Cognitive Behavioral Therapy के द्वारा लोगों का इलाज किया जाना चाहिए। यह एक प्रकार की चिकित्सकिय प्रणाली है, जिसके द्वारा डॉक्टर रोगी का उपचार करते हैं।

इसके अतिरिक्त, अपने घर-परिवार और समाज में घुल मिलकर रहने, सही खानपान, सही दिनचर्या और अपनी बातों को एक दुसरे के साथ साझा करते रहने से डिप्रेशन के किसी भी प्रकार से लड़ाई जीती जा सकती है।

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