अज्ञानता है किडनी समस्या की मुख्य वजह

गाँवों में अज्ञानता व जागरूकता का अभाव मुख्य कारण हैं बढ़ती हुई किडनी सम्बंधित समस्यााओं की

”अगर मुझे किडनी की बीमारियों और उनके लक्षणों के बारे में जरा सा भी पता होता तो शायद मेरी किडनी खराब होने से बच जातीं। मैंने न तो कभी शरीर और उसमें होने वाले रोगों के बारे में पढ़ा और न ही कभी मुझे किसी ने इस संबंध में जानकारी दी। मुझे लगता है हर व्यक्ति के लिए स्वास्थ्य साक्षरता बहुत जरूरी है।” 22 वर्षीय कमल वर्मा यह कहते हुए भावुक हो जाता है कि जरूरी नहीं आप मेडिकल की पढ़ाई ही करें लेकिन हर किसी को शरीर के अंगों और उनकी संभावित बीमारियों के लक्षणों के बारे में जानकारी होनी चाहिए।

कमल राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले के संगरिया कस्बे के निवासी राजूराम वर्मा का बेटा है। राजूराम स्कूल तक पढ़े हैं और अपने घर में ही किराने की छोटी दुकान चलाते हैं। इसी से उनके परिवार का गुजारा होता है।

सब कुछ ठीक चल रहा था। आमदनी भले ही कम थी लेकिन पूरा परिवार खुश था। कमल वर्ष 2019 में स्नातक परीक्षा के बाद सरकारी नौकरी की परीक्षा की तैयारी के लिए श्रीगंगानगर गया। वहां अगस्त 2019 में उसे उल्टी होने लगीं। कई पाचन संबंधी दवाएं लीं मगर कोई फायदा न हुआ। जब उसके पांवों में सूजन आना शुरू हो गई तब उसने समझा कि खेलने की वजह से ऐसा हो रहा है। करीब एक साल तक वह इधर-उधर से दवाइयां लेता रहा। फिर जुलाई 2020 में संगरिया में एक डॉक्टर को दिखाया तो उन्होंने संदेह होने पर ब्लड यूरिया और क्रिएटिनिन जांच कराई। जांच मेंं क्रिएटिनिन 3 आया। इसके कुछ दिन बाद कमल को जयपुर मेंं नेफ्रोलॉजिस्ट डॉ. पंकज बेनीवाल के यहां ले जाया गया। तब तक क्रिएटिनिन बढ़कर 7 हो चुका था। वहां से उसका इलाज चला व अनेक बार डायलिसिस हुआ। फिर कमल के परिजन उसे गुजरात के नाडियाड में मूलजी भाई यूरोलॉजिकल अस्पताल लेकर गए। वहां डॉक्टर्स ने साफ कह दिया कि किडनी डेमेज हो चुकी हैं व किडनी ट्रांसप्लांट ही एकमात्र विकल्प है। फिर उसका इलाज हनुमानगढ़ के जिला अस्पताल और जयपुर के संतोक बा दुर्लभ जी हॉस्टपील में चला।

आखिर क्यों हुआ ऐसा?

जांच मेंं किडनी की बीमारी पकड़ में आने और विभिन्न स्थानों पर इलाज के बावजूद सुधार क्यों नहीं हुआ, इस बारे मेंं कमल ने बताया कि देरी से ही सही मगर बीमारी का पता चल गया था। नेफ्रोलॉजिस्ट से इलाज भी शुरू हो गया लेकिन हमें इस बारे में कोई समझ नहीं थी। जैसे कोई राय देता रहा, हम उसके मुताबिक चलते रहे। जैसे नेफ्रोलॉजिस्ट डॉ. बेनीवाल की दवाएं शुरू होने के छह महीने बाद किसी की राय पर मैंने नजदीकी गांव के एक नीम हकीम से इलाज शुरू करवा लिया। कथित वैद्य ने दो-तीन महीने तक दवाएं दीं लेकिन कमल की हालत और बिगड़ गई।  फिर नाडियाड के डॉक्टर द्वारा ट्रांसप्लांट जरूरी बताए जाने के बाद किसी ने मेरे पिता को एक कथित वैद्य के पास भेज दिया। उसे किडनी स्टोन बता कर दवा देनी शुरू कर दी। ऐसे ही किसी के कहने पर परिजन मुझे दिल्ली के एक वैद्य के पास ले गए।


कमल वर्मा अपनी मां शिमला देवी के साथ

कमल ने बताया, ”कभी इधर तो कभी उधर इलाज कराने से मेरी हालत निरंतर बिगड़ती चली गई। जुलाई 2021 में मेरा हीमोग्लोबिन केवल चार रह गया और क्रिएटिनिन बढ़कर 17 पर पहुंच गया। मैं अपने पांवों पर खड़ा होने की स्थिति में भी नहीं रह गया था। मुझे जयपुर में महात्मा गांधी मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पीटल में ले जा गया। वहां नेफ्रोलॉजिस्ट डॉ. सूरज गोदारा ने 19 अगस्त को भर्ती किया। लगातार डायलिसिस होते रहे। अंतत: 7 सितंबर 2021 को डॉ. गोदारा ने ऑप्रेशन कर किडनी ट्रांसप्लांट की। अगर उसकी मां से उसे किडनी न मिलती तो उसकी मौत लाजिमी थी। उसकी मां शिमला देवी ने उसे किडनी डोनेट की। ऑप्रेशन के खर्चे की रकम कमल के दोस्तों ने सोशल मीडिया पर केंपेन चलाकर एकत्र की।”

ज्ञान पर भारी पड़ा अज्ञान

किडनी में खराबी शुरू होने पर कमल के शरीर ने ऐसे संकेत देने शुरू कर दिए थे, जिन्हें भांपकर कोई भी डॉक्टर उसे किडनी संबंधी परेशानी होने का सहजता से अंदाजा लगा सकता था। एक तो संबंधित डॉक्टर तक देरी से जाना और जाने के बाद उसी से सुचारू उपचार कराने के बजाय नीम हकीमों के चक्कर में पडऩा भारी पड़ गया। कमल के पिता राजूराम और मां शिमला देवी कहते हैं कि हमें कभी किसी से किडनी या किसी भी तरह की स्वास्थय संबंधी जानकारी नहीं मिली थी, जिससे हम बीमारी के बारे में अंदाजा लगा पाते। हम इसे खाने-पीने की कमी से आ रही सामान्य कमजोरी ही मानते रहे। अगर हम डॉक्टरों की बात मानते और घरेलू नुस्खों के चक्कर में न पड़ते तो यह नौबत न आती।  

बहुत लोगों के साथ होता है ऐसा

Dr Sandeep Chauhan

श्रीगंगानगर के नेफ्रोलॉजिस्ट डॉ. संदीप चौहान कहते हैं कि बहुत से लोगों के साथ इस तरह के हालात बन जाते हैं। स्वास्थ्य ज्ञान (Health Literacy) का अभाव इसमें मुख्य वजह बनता है। हमें जागरूक होना ही चाहिए। देखिए हम एक बाइक भी खरीदते हैं तो साल में तीन-चार बार उसकी जांच-सर्विस करवाते हैं लेकिन अपने शरीर के लिए ऐसा करना जरूरी नहीं समझते। हम कभी अपने बर्थडे या अन्य मौके पर ऐसी जांच नहीं कराते।  अगर समय-समय पर हम अपने शरीर की जांच कराएं तो बीमारी पकड़ में आ सकती है और दवाओं से मरीज ठीक हो सकता है।

भारत में युवा सर्वाधिक प्रभावित

भारत में युवा वर्ग किडनी की समस्या से सर्वाधिक प्रभावित हो रहा है जबकि पश्चिमी देशों में बुजुर्गों में यह समस्या ज्यादा देखने को मिलती है। डॉ. चौहान कहते हैं कि पश्चिमी देशों में लोग जागरूक होने के कारण युवा अवस्था से ही किडनी जांच के प्रति गंभीर हो जाते हैं और उनके साथ समस्या नहीं आती। इसके विपरीत भारत में युवा जांच ही नहीं कराते और बीमारी का पता ही नहीं चलता। इसका परिणाम किडनी समस्या के रूप मेंं सामने आता है।

मुख्य कारण व लक्षण

डॉ. चौहान के मुताबिक हाई बीपी और ब्लड शुगर किडनी फेल के कारण बन रहे हैं। किडनी फेल का हर दूसरा मरीज मधुमेह, बीपी का होता है। जितने लोग डायलिसिस पर आते हैं, उनमें से 40 फीसदी लोग मधुमेह व हाई बीपी के शिकार होते हैं। एक चौथाई मरीज हाई बीपी के शिकार होते हैं।


डॉ. चौहान के अनुसार चेहरे व पांवों की सूजन, उल्टी होना, भूख की कमी, हाई बीपी, ब्लड की कमी, स्किन फटना, चक्कर आना, यूरिन फंक्शन में बदलाव आदि ऐसे लक्षण हैं, जो किडनी संबंधी परेशानी की ओर संकेत करते हैं। अगर किसी व्यक्ति को इनमें से कोई लक्षण हों तो उसे तुरंत विशेषज्ञ डॉक्टर की सलाह लेनी चाहिए।

बचाव के लिए क्या किया जाए

डॉ. चौहान कहना है कि किडनी को खराब होने से बचाने के लिए ब्लड प्रेशर का नियंत्रण में होना (80-130) आवश्यक है। डॉक्टर की सलाह के बिना अनावश्यक दवाइयां, खासकर दर्द निवारक दवाइयां न खाएं। मधुमेह को नियंत्रण में रखें व व्यायाम जरूर करें। शराब और धूम्रपान से बचें।

अंगदान के प्रति जागरूकता जरूरी


डॉ. चौहान कहते हैं कि किडनी ट्रांसप्लांट की नौबत जागरूकता के अभाव में आती है। इसके बाद समस्या आती है पैसे की और सवाल उठता है कि किडनी कहां से लाएं। पैसे का प्रबंध तो किसी तरह हो सकता है लेकिन जरूरत के मुताबिक किडनी का प्रबंध करना मुश्किल हो जाता है। ऐसे में लोगों को अंगदान के प्रति जागरूक होना होगा। किसी व्यक्ति की ब्रेन डेथ की स्थिति में उसके अंगदान किए जाने चाहिए। एक व्यक्ति के अंगों से सामान्यतः नौ मरीजों को जिंदगी मिलती है। 

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