सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त बुजुर्ग परमेश्वर दत्त के पास रहने को अच्छा मकान है। हर महीने बंधी-बंधाई पेंशन आ आती है। दो दुकानों का किराया भी आता है। कुल मिलाकर किसी प्रकार की कमी नहीं है, लेकिन परमेश्वर दत्त और उनकी पत्नी खुश नजर नहीं आते। जब से उनका इकलौता बेटा पत्नी के साथ नौकरी के लिए आस्ट्रेलिया गया है, तब से बुजुर्ग दम्पती के चेहरे से रौनक जाती रही। दोनों चिंतित रहते हैं। कभी अपनी फिक्र करते हैं तो कभी विदेश में बसे बेटे की। चेहरों पर उदासी साफ नजर आती है।
इस तरह की परिस्थिति में जी रहे परमेश्वर दत्त और उनकी पत्नी अकेले नहीं हैं। उन जैसे बुजुर्गों की तादाद बहुत बड़ी है, जो बच्चों के नौकरी के लिए अन्यत्र चले जाने के बाद एकाकी जीवन काटने पर मजबूर हैं। बुजुर्ग माता-पिता उनके बिना सूना-सूना सा महसूस करते हैं। उन्हें लग रहा है जैसे बच्चों के चले जाने से उनका घर ही नहीं, बल्कि जीवन ही खाली हो गया है। जीवन का संध्याकाल बिता रहे बुजुर्गों को खाली घर काटने को दौड़ता है। नकारात्मक सोच और असुरक्षा की भावना उनके मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर रही है।
क्या है एम्पटी नेस्ट सिंड्रोम (Empty Nest Syndrome)

जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर के मनोविज्ञान विभाग की असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. हेमलता जोशी बताती हैं, ”बच्चों का जॉब के लिए बाहर जाना स्वाभाविक है लेकिन जिन मां-बाप ने बच्चों को बीस-पच्चीस साल तक पास-पोसकर बड़ा किया होता है, उन्हें उनकी फिक्र होती है। बच्चों के चले जाने पर न केवल वह उनके प्रति चिंतित रहते हैं बल्कि अपने को अकेला भी महसूस करते हैं। वह उदास हो जाते हैं। उन्हें भावनात्मक रूप से नुकसान महसूस होता है। इसी को ‘एम्पटी नेस्ट सिंड्रोम’ कहते हैं। यह एक मनोदशा है। कोई बीमारी नहीं है। ऐसी मनोदशा के कारण माता-पिता को टेंशन, एंक्जाइटी व डिप्रेशन जैसी समस्याएं आ घेरती हैं।”
अकेलेपन की समस्या काफी गंभीर

राजकीय जिला चिकित्सालय श्रीगंगानगर के मनोरोग विशेषज्ञ डॉ. प्रेम प्रकाश अग्रवाल बताते हैं, ”आजकल छोटे परिवार हैं। लोगों के एक या दो ही बच्चे हैं। अगर एक लड़की है तो उसकी शादी हो जाती है और लड़का पढ़-लिख कर नौकरी के लिए बड़े शहरों में या विदेश चला जाता है। पीछे मां-बाप अकेले रह जाते हैं। यदि पति-पत्नी दोनों जीवित हैं तो भी ठीक रहता है लेकिन अगर दोनों में से किसी एक का देहांत हो चुका हो तो दूसरे बुजुर्ग के लिए स्थिति और भी मुश्किल हो जाती है। उनकी सोच नकारात्मक हो जाती है। शारीरिक रूप से कमजोर हो जाते हैं। सोचते हैं बच्चों के बिना कौन संभालेगा। कौन इलाज कराने ले जाएगा। अपने साथ-साथ उन्हें बच्चों की फिक्र भी रहती है। अकेलेपन के कारण वह डिप्रेशन (Depression) में आ जाते हैं। एकाकी बुजुर्गों की यह समस्या काफी गंभीर है।”
क्या है समाधान?

हनुमानगढ़ टाउन के जैन अस्पताल में मनोरोग विशेषज्ञ डॉ. विक्रम जैन कहते हैं, ”वक्त की जरूरत को समझ कर ही बुजुर्ग प्रसन्नचित्त रह सकते हैं। उन्हें सकारात्मक तरीके से यह सोचना चाहिए कि जो भी हो रहा है वह जरूरी है और वह अच्छे के लिए हो रहा है। आगे भी सब अच्छा ही होगा।”
डॉ. जैन का मानना है कि समय को स्वीकार किया जाना चाहिए। कभी भी अपने अनुभवों या अपेक्षाओं से बच्चों की तुलना नहीं करनी चाहिए। हताश-निराश होने के बजाय अपने बच्चे का सफल होने के लिए मददगार बनने पर विचार करना चाहिए। ऐसा करके बुजुर्ग न केवल बच्चों के लिए सहायक साबित होंगे, बल्कि अपने लिए भी तनाव रहित जीवन के रास्ते खोल पाएंगे।
डॉ. अग्रवाल कहते हैं कि, ”हमारे पास अक्सर ‘एम्पटी नेस्ट सिंड्रोम’ से प्रभावित बुजुर्ग आते हैं। हम काउंसलिग कर उन्हें डिप्रेशन से निकालने की कोशिश करते हैं क्योंकि इस समस्या का समाधान दवाओं मेंं नहीं है। फौरी राहत के लिए हल्की-फुल्की दवा दी जा सकती हे पर इस भावात्मक समस्या का हल भावात्मक ढंग से ही निकल सकता है। हम अकेलेपन के शिकार बुजुर्गों को सलाह देते हैं कि वह स्वयं को व्यस्त रखने की कोशिश करें। सामाजिक व पारिवारिक गतिविधियों मेंं ज्यादा से ज्यादा भागीदारी निभाएं जिससे उन्हें अकेलेपन का अहसास कचोटे ही नहीं। बच्चों को चाहिए वह माता-पिता के बराबर संपर्क में रहें। हाल-चाल पूछते रहें। छुट्टियों में उनके पास आते-जाते रहें। यदा-कदा मां-बाप को अपने पास बुला लिया करें। इससे बुजुर्ग खुश रहेंगे और समस्या को काफी हद तक कम करने में मदद मिलेगी।”
भविष्य के लिए बनाएं योजना
डॉ. हेमलता जोशी कहती हैं, ”बच्चों को तो पढाई या नौकरी के लिए बाहर जाना ही पड़ेगा। इसके लिए अभिभावकों को पहले से ही तैयारी करनी चाहिए। वह अपने को इस स्थिति के लिए मानसिक रूप से तैयार करें। भविष्य के लिए योजना बनाएं कि अकेले होने पर क्या करेंगे। उन्हें सकारात्मक सोच रखनी चाहिए। अपने को व्यस्त रखकर वह ज्यादा खुश रह सकेंगे। इसके लिए वह सामाजिक मुद्दों से जुड़ सकते हैं। अपनी रूचि के अनुसार काम कर सकते हैं, जो पहले व्यस्तताओं के कारण नहीं कर पाए। इससे वे बच्चों के चले जाने से हुए भावनात्मक नुकसान से उबर पाएंगे।”
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