प्रतिस्पर्धा की भेंट चढ़ रहा युवा एवं बच्चों का स्वास्थ्य  

बच्चों पर बढ़ता किताबों एवं प्रतिस्पर्धा का बोझ कहीं छीन ना ले उनसे उनकी जिंदगी, पढ़िए वर्तमान परिपेक्ष्य पर आधारित एक विशलेषणात्मक आलेख..

Last Updated on अगस्त 15, 2022 by Neelam Singh

बचपन में किताबें सीने से लगी रहती थीं लेकिन बदलते समय के साथ किताबें बोझ की तरह पीठ पर लद गईं। पहले बच्चों के लिए पाठशालाएं होती थीं, जहां बच्चे हंसते-खेलते नई चीजें सीखते थे लेकिन अब ये बातें पुरानी हो गई हैं क्योंकि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में बढ़ती जनसंख्या के साथ पढ़ाई बोझ बन गई है और तरक्की एक नशा। 

भारत में हर साल स्वामी विवेकानंद की याद में 12 जनवरी को युवा दिवस के तौर पर मनाया जाता है। उन्होंने शैक्षणिक पद्धति के बारे में कहा था, “हमें ऐसी शिक्षा चाहिए जिससे चरित्र का निर्माण हो, मन की शक्ति बढ़े, बुद्धि का विकास हो और मनुष्य अपने पैर पर खड़ा हो सके।” 

“जिस शिक्षा से हम अपना जीवन निर्माण कर सके, मनुष्य बन सके, चरित्र गठन कर सके और विचारों में सामंजस्य कर सकें। वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है।”

लेकिन आज के परिपेक्ष्य में ये बातें बिल्कुल निराधार लगती हैं क्योंकि अब शिक्षा पद्धति पदल चुकी है, जहां बच्चे केवल किताबी ज्ञान प्राप्त करने में व्यस्त हैं। एक अंधी रेस है, जिसके पीछे सब भाग रहे हैं लेकिन लक्ष्य अनिश्चित है। जनसंख्या बढ़ने के कारण ऐसे बदलाव होना सामान्य हैं मगर ये बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक विकास पर विपरीत प्रभाव डाल रहे हैं। 

बच्चों के भविष्य की फैक्ट्री

कोटा फैक्ट्री, लाखों में एक और हालिया रिलीज क्रैश कोर्स जैसे वेब सीरीज वर्तमान शिक्षा पद्धति और उसके विपरीत प्रभावों से रुबरु करवाते हैं। एक तरफ कोचिंग संस्थान मार्केट में अपना दबदबा बनाए रखना चाहते हैं क्योंकि इससे उनकी कमाई का जरिया बनता है। विभिन्न परीक्षा परिणामों के बाद अख़बारों का पहला पन्ना ऐसे प्रचारों से पटा हुआ रहता है, जहां क्लास रुम कोर्स, टैबलेट कोर्स, डिसटेंस कोर्स, क्रैश कोर्स आदि के जरिए बच्चों पर पढ़ाई के दबाब को गहरा बनाया जाता है। क्रैश कोर्स में तो बच्चों को दो सालों की पढ़ाई एक साल में कराई जाती है। बच्चे भी टॉप 10 में आने की होड़ में लगे रहते हैं। साल 2019 में ही कोटा स्थित कोचिंग संस्थान ने 3000 करोड़ रुपयों की आमदनी की थी । इन आंकड़ों से ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि कोटा में सपनों का व्यापार कितना विशाल है।

इतना ही नहीं अब हर गली-मुहल्ले में कोचिंग संस्थान या ट्युशन की प्लेट टंगी रहती है जो आईआईटी, नीट एवं अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कराते हैं, जिसकी फीस लाखों में है।

साल 2019 में कोटा स्थित कोचिंग संस्थान की एक विद्यार्थी आकांक्षा ने बताया, “मैंने आईआईटी की तैयारी के लिए क्रैश कोर्स में एडमिशन लिया था। वहां सोमवार से शनिवार तक सुबह 10 बजे से रात के 8 बजे तक पढ़ाया जाता था लेकिन मेरे साथ कई बच्चों की हालत दोपहर तक खराब होने लगती थी क्योंकि दिमाग ही काम करना बंद कर देता था। ऐसा लगता था मानो बस बैठकर लिखते और सुनते जा रहे हो। कुछ समझ ही नहीं आता था फिर कमरे में लौटने के बाद पढ़ाई नहीं हो पाती थी मगर होमवर्क बहुत रहता था। हर रविवार को टेस्ट होते थे, जिसमें अच्छी रैंक लाने पर हमें shuffle कर दिया जाता था। अगर रैंक अच्छी आई, तब अच्छा वाला बैच मिलता था और अगर रैंक कम आई तब बैच का स्तर गिरा दिया जाता था। मेरे कई दोस्तों ने बीच में ही पढ़ाई छोड़ दी। मैं भी घर जाना चाहती थी लेकिन लाखों रुपये लग चुके थे इसलिए वापस जाना भी मुश्किल लग रहा था। लगातार बैठे रहने से पेट और कमर में दर्द हो जाता था। वहां ना जाने कितने बच्चे सुसाइड तक कर लिया करते थे, जिसे देखकर बहुत डर लगता था। आखिर में मैं भी आईआईटी नहीं निकाल पायी और फिर पापा ने एक प्राइवेट कॉलेज में मेरा दाखिला करवा दिया।”

लंबे वक्त की कीमत चुकाता स्वास्थ्य

Better Health Channel पर प्रकाशित इस शोध के आधार पर कहा जा सकता है कि लंबे वक्त तक एक ही मुद्रा में बैठे रहने से कई तरह की बीमारियां हो सकती हैं। जैसे – वजन का बढ़ना, कमर व पैर में दर्द, हृदय संबंधी बीमारियां, डायबिटीज, नस संबंधी तकलीफें, गर्दन व आंखों की शिकायत, इत्यादि। 

मनोचिकित्सक डॉ. बिंदा सिंह का मानना है कि, “बच्चों पर पढ़ाई का दबाब नहीं बनाया जाना चाहिए। हालांकि बढ़ती प्रतिस्पर्धा में बच्चों का मल्टी-टैलेंटेड होना जरुरी है लेकिन बच्चों पर मानसिक रुप से बनाया गया दबाब उन्हें अवसाद से ग्रसित भी कर देता है। कई बार माता-पिता अपने बच्चे की तुलना अन्य बच्चों से करते हैं जबकि ऐसा करना बेहद खतरनाक है क्योंकि इससे बच्चों में हीन-भावना के साथ-साथ बदले की भावना भी जागृत होने लगती है, जिसे वक्त रहते नियंत्रित करना आवश्यक हो जाता है। हर एक बच्चा अपनेआप में खास है इसलिए उसकी खासियत को निखारने का प्रयास करना चाहिए। एक उम्र के बाद बच्चे स्वयं भी जिम्मेदारी का अनुभव करने लगते हैं इसलिए उनपर दबाब बनाने से अच्छा उनके साथ दोस्ताना व्यवहार बनाना चाहिए।” 

पलकों पर उम्मीदों का बोझ

हालांकि ऐसा नहीं कहा जा सकता कि बच्चों की बिगड़ती मानसिक स्थिति के लिए केवल कोचिंग संस्थान ही जिम्मेदार है क्योंकि कई बार माता-पिता अपने सपने अपने बच्चों पर थोप देते हैं, जिससे बच्चों के अंदर की प्रतिभा शून्य हो जाती है। कच्चे कंधों पर घरवालों के सपनों का बोझ बच्चों को झुकाता चला जाता है। जिस बच्चे की चाहत भीड़ में शामिल होने की नहीं होती, उसे भी भीड़ का चेहरा बनना पड़ता है।  

बढ़ती आबादी, बढ़ती प्रतियोगिता और संसाधनों की कमी के कारण बच्चे अंधाधुन भीड़ के पैरों तले दब जाते हैं। बदलते वक्त के साथ इच्छाओं में बदलाव एवं बढ़ोतरी होना लाजिमी है लेकिन इस बदलाव और बढ़ोतरी की कीमत बच्चों को अपना स्वास्थ्य खोकर चुकानी पड़ती है और कभी-कभी इसकी कीमत बच्चे की जान ले लेती है। अप्रैल महीने में ही कोटा, राजस्थान से चार बच्चों के आत्महत्या की खबर आई थी। 

स्वयं का आंकलन है जरुरी 

आईआईटी, NEET या कोई भी सामान्य प्रतियोगी परीक्षा को लेकर बच्चों पर दबाब आगे चलकर गंभीर परिणाम दे सकता है क्योंकि सामान्य प्रतियोगी परीक्षाओं में भी बेहतर करने और समाज में सरकारी नौकरी करने की होड़ होती है क्योंकि भारतीय समाज में आज भी सरकारी नौकरी को सवोर्परि माना जाता है।

देखा जाए तो सब बच्चों से एक जैसी अपेक्षा करना व्यर्थ है। प्रत्येक बच्चे को उसके रुझान के अनुसार शिक्षा दिलाने की कोशिश करना हर माता पिता का लक्ष्य होना चाहिए। इसलिए बच्चों पर अपनी महत्वाकांक्षाओं का बोझ न लादकर उसे सही दिशा प्रदान करैं न कि उसे एक बिना लक्ष्य की दौड़ का हिस्सा बनाये।

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