आटिज्म की लड़ाई में समाज व परिवार दोनों का सहयोग जरूरी

जानिए आटिज्म से जूझ रहे कुछ बच्चों व उनके परिवारों के संघर्ष की कहानी

Last Updated on मई 6, 2022 by Neelam Singh

आटिज्म को लेकर समाज का दृष्टिकोण अत्यंत पिछड़ा है जबकि यह देखा गया है प्रारम्भ से ही थोड़ी सावधानी बरतने पर इस अवस्था को नियंत्रित किया जा सकता है। ऐसे समय में ना केवल बच्चों को बल्कि उनके अभिभावकों को भी समाज के सकारात्मक सहयोग की जरुरत होती है।

आटिज्म को लेकर लोगों में जागरुकता की अत्यंत कमी है, जिसके कारण लोग इसे हेय दृष्टि से देखते हैं। साल 2021 में The Center for Disease Control द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार भारत में प्रति 10,000 बच्चों में से करीब 88.50 प्रतिशत बच्चों में आटिज्म की समस्या पाई गई है। आटिज्म एक न्यूरोलॉजिकल और विकास संबंधी विकार है, जो बचपन में ही शुरू हो जाता है और एक व्यक्ति के जीवन में अंत तक रहता है। हिन्दी में इसे ‘आत्मविमोह’ और ‘स्वपरायणता’ भी कहते हैं। हालांकि अब बदलते तकनीक और स्वास्थ्य संबंधित तकनीकों और इलाज की प्रक्रिया के कारण आटिज्म से ग्रसित लोग भी सम्मानीय जीवनयापन कर पा रहे हैं हैं। कुछ ऐसी ही कहानी इन बच्चों की है, जो आटिज्म से अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं।

लक्ष्य के साथ मां की भी जंग

पूणे में रहने वाले लक्ष्य ने जब अपने उम्र के तीसरे वर्ष में प्रवेश किया तब भी उसका विकास अन्य सामान्य बच्चों की तरह नहीं था। तीन साल का होने के बावजूद भी वह बोल नहीं पाता था, और अपनी भावनायें व्यक्त नहीं कर पता था। लक्ष्य की मां सुरुचि चौधरी बताती हैं कि उस वक्त न चाहते हुए भी मुझे स्वीकार करना पड़ा था कि लक्ष्य एक सामान्य बच्चे की तरह व्यवहार नहीं कर रहा है। उसमें ऑटिज्म के लक्षणों की पहचान पहले ही की जा चुकी थी।

उसके बाद उसकी सही चिकित्सा के लिए मेरी खोज प्रारंभ हुई। साल 2017 में मैं एक ऑटिज्म जागरूकता कार्यक्रम में शामिल हुई। वहां मुझे एक ऐसी संस्था के बारे में पता चला, जो लक्ष्य के इलाज में मददगार हो सकती थी। मैं अगले ही दिन लक्ष्य के उपचार के बारे में जानने के लिए उस संस्था में पहुंच गई। हालांकि मुझे तब भी संदेह था कि क्या यहां के इलाज से लक्ष्य ठीक हो सकता है, क्योंकि उसके व्यवहार के कारण समाज उसे मंदबुद्धि और पागल मानने लगा था लेकिन हिम्मत ना हारते हुए मैंने लक्ष्य का इलाज प्रारंभ किया, जिससे लक्ष्य को नया जीवन मिला।

धीरे-धीरे समय बीतने के साथ ही हर सुबह संस्था जाने के लिए लक्ष्य उत्सुक रहने लगा। चिकित्सकों द्वारा उसे दिए जाने वाला स्नेह और विश्वास के कारण उसके अंदर बदलाव आने लगे। मां सुरुचि बताती हैं कि, “संस्था द्वारा वाट्सएप्प ग्रुप पर लक्ष्य के क्रियाकलापों के वीडियो देखकर मेरे संदेह खत्म होने लगे। साथ ही आशा की एक किरण दिखाई देने लगी थी। दिन और महीने गुजरते गए फिर करीब पांच महीने बाद एक दिन मुझे विश्वास ही नहीं हुआ, जब लक्ष्य ने अपने पहले शब्द का उच्चारण किया। उस वक्त मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। खुशी के आंसुओं के साथ मैंने अपनी ओर से संस्था का आभार माना। लक्ष्य में जो सुधार हुआ, उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। लक्ष्य अब काफी बातूनी हो गया है। अब तो वह मुझे रोज आश्चर्यचकित कर देता है। सालभर हुए उपचारों की बदौलत लक्ष्य ने वाणी, तकनीकी कौशल, सामाजिक व्यवहार जैसी कई और भी मुश्किलों से पार पा लिया है। लक्ष्य अब पांच साल का हो रहा है। वह नियमित रूप से स्कूल जाने लगा है। दिन-प्रतिदिन उसमें सुधार हो रहा है और अब वह सामाजिक जीवन की मुख्यधारा में शामिल होने लगा है।”

प्राची भी हो रही है अब सामान्य

भोपाल की सात साल की प्राची पाल भी ऑटिज्म से प्रभावित है। उसमें मध्यम बौद्धिक दिव्यांगता है। हालांकि प्राची ऊर्जा और उत्साह से भरी एक जीवंत बच्ची है लेकिन थोड़ी मूडी भी है। वह बहुत बातूनी है, परंतु सवाल पूछे जाने पर वह नृत्य करने लगती है। हालांकि पहले न तो वह अपनी भावनाएं व्यक्त कर पाती थी और न ही पढ़ाई में अन्य बच्चों की बराबरी कर पाती थी, लेकिन उपचार के बाद वह अक्षर पहचानने लगी है। साथ ही अब वह एक से लेकर दस तक गिनती का स्पष्ट उच्चारण करती है। अब वह अपनी बात आसानी से साझा कर लेती है। यहां तक कि वह खाने से पहले हाथ भी स्वयं धो लेती है और अन्य दिनचर्या संबंधित छोटे-मोटे कार्य भी कर लेती है। उसे साथी बच्चों के साथ पढ़ना और दूसरे बच्चों को पढ़ते हुए देखना अच्छा लगता है।

आपसी सहयोग है बहुत जरुरी

बच्चों में सही समय पर आटिज्म के लक्षणों को पहचानना सबसे ज्यादा जरुरी होता है क्योंकि आटिज्म से ग्रसित बच्चे सामान्य बच्चों की तरह ही होते हैं। उनका विकास भी सामान्य बच्चों जैसा ही होता है। जैसे – उठना-बैठना, चलना,-कूदना आदि, मगर इनमें सम्प्रेषण की कमी देखी जाती है। यह समाज में घुलने-मिलने से कतराते हैं। शोर-शराबे से दूर भागते हैं। यहीं इनका व्यवहार सामान्य बच्चों से अलग हो जाता है। इन्हें तेज आवाज़ व तेज लाइट पसंद नहीं होते हैं। ऑटिज्म कभी भी अभिभावकों की अनदेखी से नहीं होता है। अधिकांश लोगों का मानना होता है कि कुछ खाने से या किसी दवा अथवा इंजेक्शन से भी आटिज्म होता है, जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है इसलिए इन सब धारणाओं पर ध्यान नहीं देना चाहिए।

डॉ. जगमीत चावला

आटिज्म संस्था की निदेशक एवं मनोचिकित्सक डॉ. जगमीत चावला बताती हैं कि वे पिछले 15 सालों से बच्चों में ऑटिज्म, डाउन सिंड्रोम और अन्य मानसिक विकारों पर काम कर रही हैं। हर साल पूरा अप्रैल का महीना ऑटिज्म जागरूकता के रूप में मनाया जाता है। ऑटिज्म बच्चों में एक मस्तिष्क संबंधी विकार होता है, जो बच्चों के संपूर्ण विकास में बाधा बनता है।

डॉ जगमीत चावला के अनुसार ऐसे बच्चों को समाज को खुले दिन से अपनाना चाहिए। इन बच्चों को निःस्वार्थ एवं भरपूर प्यार की जरूरत होती है। इसके अलावा जितना जल्दी हो सके, ऑटिज्म से ग्रसित बच्चों को चिकित्सा उपलब्ध करानी चाहिए। Applied Behavior Analysis (ABA) थेरेपी इनके लिए सबसे उपयोगी चिकित्सा पद्धति है। यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रमाणित भी हो चुका है। थेरेपी से ऐसे बच्चे 4 से लेकर 14 फीसदी तक एकदम ठीक हो सकते हैं। वे सामान्य बच्चों की तरह स्कूल जा सकते हैं। दरअसल ऐसे बच्चों को शारीरिक और मानसिक स्तर पर मजबूत बनाने के लिए उनकी हर छोटी गतिविधियों को परिजनों द्वारा प्रोत्साहित करते रहना चाहिए।

बेहतर है कि माता-पिता अपना मनोबल बनाए रखें और समाज भी इन बच्चों को अपना पूरा सहयोग प्रदान करे क्योंकि आपसी प्रेम द्वारा बच्चों के साथ-साथ माता-पिता को भी मजबूती मिलती है, जिससे वे सकारात्मक दिशा में सोच पाते हैं और अपने बच्चे का उचित उपचार करा पाते हैं।

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