बेटा पाने की चाहत में अपनी ही बेटी को दुत्कारा

जहां एक ओर हम देखते हैं कि बेटियां आकाश छु रही हैं, वहीं आज भी ऐसे कई मामले हैं, जहां बेटियां जन्म के बाद एक प्यार भरे स्पर्श को भी तरस जाती हैं..

Last Updated on नवम्बर 11, 2022 by Neelam Singh

कहते हैं, जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता वास करते हैं लेकिन नारी पूजित होने से ज्यादा सम्मानित होना पसंद करती है, जो सम्मान उसे समाज और परिवार नहीं दे पा रहा है। हालांकि महिलाएं अपने बलबूते अपनी पहचान बनाने और सम्मान प्राप्त करने का संघर्ष कर रही है लेकिन जब तक समाज और परिवार की सोच विकसित नहीं होगी एवं बेटा पैदा करने की लालसा में कमी नहीं आएगी, तब तक बेटियों का संघर्ष चलता रहेगा। 

पिछले दिनों राजस्थान के ग्रामीण इलाके की एक घटना ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा है, जहां अस्पताल में बेटा जन्म लेने की खबर सुनते ही एक दंपति खुशी से भाव-विभोर हो गए लेकिन बाद में जब उन्हें पता चला कि उन्हें बेटा नहीं बेटी हुई है, तब उनका रवैया ही बदल गया और वे अपनी ही बेटी को स्वीकार करने से मुकर गए क्योंकि उनका मानना था कि उन्हें बेटी हो ही नहीं सकती। जरा सोचिये क्या कोई व्यक्ति ऐसा दावा कर सकता है कि उसे बेटा होगा या बेटी? कोई भी व्यक्ति बिना जांच के नहीं कह सकता है कि उसे बेटा होगा या बेटी, लेकिन लोगों की मानसिकता इतने निचले स्तर पर पहुंच गई है कि उन्हें ऐसा लगता है कि उनके यहाँ बेटी तो कभी हो ही नहीं सकती और आश्चर्यजनक बात यह है कि एक महिला द्वारा ही बेटा प्राप्त करने वाले लोगों को बेटी के अस्तित्व से घृणा होने लगती है लेकिन क्यों? 

सोशल मीडिया भी कर रहा दावा 

यहां हैरानी की बात यह भी है कि लोगों की इस मानसिकता का फायदा कई डॉक्टर भी उठा रहे हैं। एक अस्पताल में दो महीने की गर्भवती महिला अपने और होने वाले बच्चे की जांच के लिए आई थी, जहां उससे हुई बातचीत में उसने बताया कि उसे डॉक्टर ने कहा है कि वे उसे एक ऐसी दवा देंगे, जिससे उसे बेटा ही होगा। साथ ही सोशल मीडिया पर भी ऐसे कई भ्रामक दावे मौजूद हैं, जो जन्म से पहले बच्चे के लिंग की जांच की पुष्टि करने का दंभ भरते हैं। लेकिन जब बच्चों को भगवान का आर्शीवाद माना जाता है तब इस तरह के दावों का क्या औचित्य है?

बेटियों को लेकर समाज का उदासीन रवैया आज का नहीं है बल्कि सालों साल से चली आ रही रुढ़ीवादी मानसिकता एवं संकीर्ण सोच का परिणाम है कि बेटियां आज भी जन्म लेने से पहले ही मौत के घाट उतार दी जाती हैं और कभी-कभी जन्म लेते ही अपने परिवार द्वारा त्याग दी जाती है। समाज में परित्यक्ता शब्द तो चलन में है ही लेकिन जिस तरह से लोग बेटियों के जन्म लेते ही उन्हें त्याग रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि बेटित्यागता शब्द भी चलन में आ ही जाएगा। 

बेटा बनेगा बुढ़ापे का सहारा 

मुजफ्फरपुर के पॉश इलाके में बतौर घरेलू कामगार के तौर पर काम करने वाली शोभा (काल्पनिक नाम) कहती है, “बेटा होना बहुत जरुरी है क्योंकि बेटी तो अपने घर चली जाएगी लेकिन बेटा ही वंश आगे बढ़ाएगा इसलिए कम से कम एक बेटा होना जरुरी है।” शोभा को पांच बेटियां हैं और स्वयं शोभा की उम्र 26 साल है लेकिन उसका और उसके पति का मानना है कि एक बेटा जरुर होना चाहिए इसलिए वे एक बेटे के पैदा होने की आस लगाए हैं। शोभा का पति एक दिहाड़ी मजदूर है और शोभा की ८ वर्षीय बड़ी बेटी अपनी माँ के साथ उसके काम में हाथ बटाने लगी है।

केवल एक बेटा पाने के लिए लोग बिना अपने स्वास्थ्य की परवाह किए बच्चों को जन्म दे रहे हैं। कई मामले ऐसे भी हैं, जहां महिला का शरीर दूसरे या तीसरे बच्चे के लिए तैयार नहीं होता मगर तब भी केवल एक बेटे के लिए महिलाओं को बच्चे को जन्म देना पड़ता है। इसी कारण अधिकतर लोग परिवार नियोजन को नजरअंदाज कर रहे हैं। एक ओर बेटा प्राप्त करने की ललक के कारण कई बेटियां जन्म ले लेती हैं, जिनके खानपान, पढ़ाई-लिखाई, स्वास्थ्य, सुरक्षा आदि की सही तरीके से देखरेख नहीं हो पाती है और अंततः लड़कियों को जैसे-तैसे शादी करके पराये घर भेज दिया जाता है। भले कानून ने कह दिया हो कि संपत्ति में बेटियों का अधिकार है लेकिन जो परिवार या समाज बेटियों के जन्म लेने पर ही कुंठित है, उसके लिए कानून का फैसला महज कागज का एक टुकड़ा है, जिसकी कोई अहमियत नहीं है। 

अनेक कारण हैं जिम्मेदार 

साल 2015 में पानीपत हरियाणा से शुरु हुए ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ योजना का मुख्य उद्देश्य लिंग आधारित चयन पर रोकथाम, बालिकाओं के अस्तित्व और सुरक्षा को सुनिश्चित करना, बालिकाओं के लिये शिक्षा की उचित व्यवस्था तथा उनकी भागीदारी सुनिश्चित करना एवं बालिकाओं के अधिकारों की रक्षा करना है। साल 2019-21 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 1000 लड़कों पर 925 लड़कियां हैं। 

इस अंतर को जब तक लिंग भेद के चश्मे से नहीं देखा जाएगा तब तक लड़कियों की स्थिति नहीं सुधरेगी। हालांकि इस अंतर के समाज एवं लोगों के मन में व्याप्त होने के पीछे अनेक कारण हैं, जैसे – दहेज प्रथा, बच्चियों के प्रति बढ़ता रेप का आंकड़ा, समाज में बेटों को सर्वोपरि एवं वंश बढ़ाने वाला मानना, इत्यादि। ऐसी सोच को ख़त्म करने एवं बेटियों की समाज एवं परिवार में भागीदारी को बढ़ाने के लिए उन उदाहरणों से रुबरु होना अति आवश्यक है, जिनमें बेटियों ने अपने आंचल को अपना परचम बना डाला हो।

Disclaimer: Medical Science is an ever evolving field. We strive to keep this page updated. In case you notice any discrepancy in the content, please inform us at [email protected]. You can futher read our Correction Policy here. Never disregard professional medical advice or delay seeking medical treatment because of something you have read on or accessed through this website or it's social media channels. Read our Full Disclaimer Here for further information.

Subscribe to our newsletter

Stay updated about fake news trending on social media, health tips, diet tips, Q&A and videos - all about health