पूर्णतया डिजिटल होते युग की खाई बहुत गहरी है, जानें इसका दूसरा पहलू

उन्नत तकनीक के दौर में मनुष्य की निर्भरता तकनीकी गैजेट्स व ऍप्स पर इतनी ज्यादा हो गयी है कि वर्तमान पीढ़ी इनके अभाव में सहज जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकती है। आइये जानते हैं कैसे ये निर्भरता हमारे दिनप्रतिदिन के जीवन में सेंध मार रही है...

Last Updated on मई 23, 2022 by Neelam Singh

आज की बढ़ती टेक्लोलॉजी की दूनिया से शायद ही कोई ऐसा होगा, जो इससे अछूता होगा। अब तो 2-3 साल के बच्चे भी स्मार्टफोन की हर एक बारीकियों के जानकार होते हैं, जिसे देखकर अभिभावक बहुत खुश होते हैं लेकिन इससे होने वाली भविष्य की गंभीर परेशानियों से अनजान रहते हैं। 

टेक्नोलॉजी की बढ़ती लोकप्रियता ने लोगों को अपना गुलाम बना लिया है। अब अगर फोन साइलेंट पर भी रहे, तब भी ऐसा लगता है मानो फोन रिंग हो रहा है। इतना ही नहीं सोशल मीडिया पर कुछ पोस्ट करने के बाद बार-बार फोन चेक करने का मन करता है कि कितने लाइक्स मिले, कितने लोगों ने देखा, कितने कमेंट्स आए इत्यादि। इसे FOMO की संज्ञा भी दी जाती है मतलब Fear Of Missing Out. इसमें लोगों को लगता है कि अगर उ्होंने अपनी एक्टिविटी सोशल मीडिया पर कम कर दी तो वे वर्चुअल दूनिया से बाहर हो जाएंगे। 

साथ ही कोरोना माहमारी के दौरान डिजिटल एप्स पर लोगों की निर्भरता काफी बढ़ गई थी। हालांकि उस समय लोगों ने डिजिटल दूनिया का सही प्रयोग किया, जिससे कई लोगों को ऑक्सीजन सिलेंडर और बाकी जरुरी चीजें आसानी से मिल गई लेकिन डिजिटल होते युग की अनेक खामियां भी हैं, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। 

निर्भरता के कई उदाहरण 

मनोचिकित्सक डॉ. बिंदा सिंह बताती हैं कि उनके पास आजकल अधिकांश केस मोबाइल की लत से जुड़े ही आ रहे हैं। एक 20-22 साल की लड़की के केस का उदाहरण देती हुई वे कहती हैं, “उस लड़की को मोबाइल फोन की ऐसी लत लगी थी कि सोकर उठते ही सबसे पहले मोबाइल देखना, खाने के वक्त मोबाइल देखना, स्वस्थ्य रहने के तरीकों के बारे में देखना उसकी आदत में शुमार हो चुका था लेकिन वह कोई भी उपाय करने में असमर्थ थी क्योंकि उसे फोन की लत लग चुकी थी। हर समय बैठे-बैठे फोन इस्तेमाल करने के कारण उसका वजन काफी बढ़ गया था और अब लोगों के सामने जाने में उसे शर्म महसूस हो रही थी।” 

एक गृहणी के केस का उदारण देते हुए डॉ. बिंदा सिंह बताती हैं, “एक 25-26 साल की गृहणी को तरह-तरह का व्यंजन बनाना नहीं आता था लेकिन अपने आस-पड़ोस की महिलाओं को देखकर उसका भी मन तरह-तरह का भोजन बनाने का करता था। धीरे-धीरे उसने फोन पर खाने बनाने के तरीकों के बारे में देखना शुरु किया और अब उसे देख कर खाना बनाने की आदत हो गयी है जिसके कारण उसे याद नहीं रहता की उसने पहले किस तरह से खाना बनाया था। अब वो महिला रोजमर्रा का खाना भी सही से नहीं बना पा रही है।” 

लिखने की आदत छुटी 

वहीं एक 14-15 साल के बच्चे को लेकर आई एक मां ने अपने बच्चे के बारे में डॉ. बिंदा सिंह को बताया कि वो आजकल बहुत ज्यादा गलतियां कर रहा है। जैसे – गलत स्पेलिंग लिखना, लिखावट गंदी होना, आदि। डॉ. बिंदा कहती हैं कि, “आधुनिकता के प्रभाव के कारण बच्चों को प्राइवेसी चाहिए होती है, जिस कारण उन्हें एक अलग कमरा दे दिया जाता है। माता-पिता भी समय के अभाव के कारण बच्चों को समय नहीं दे पाते। नतीजतन बच्चे अव्यवाहरिक होते चले जाते हैं। बच्चे देर रात तक तक मोबाइल का प्रयोग करते हैं व चैटिंग करते समय शब्दों को छोटा करके लिखते हैं, जैसे- Please को Pls या Plz, Because को Bcoz आदि। इन्हीं सब कारणों से बच्चों के अंदर सीखने की क्षमता समाप्त होने लगती है।”

और भी हैं उदाहरण 

यही नहीं कई विवाहित दंपतियों के बीच दरार की वजह भी मोबाइल फोन बन रहा है। लोग एक कमरे में बैठकर भी एक दूसरे से बात करने के बजाय फोन पर नजरें गड़ाए रहते हैं। डॉ. बिंदा सिंह आगे कहती हैं, “लोगों के अंदर सामाजिक व्यवहारिकता की कमी हो गई है। लोग स्वयं कुछ नया विकसित नहीं करना चाहते जिस कारण उनकी कार्यक्षमता घटती जा रही है। शारीरिक गतिविधि घटती जा रही है, जिस कारण लोगों को स्वास्थ्य संबंधित परेशानी हो रही है।” 

कई मरीज ऐसे भी आते हैं, जो अपने लक्षणों को Google करके देख चुके होते हैं। उसके बाद एक के बाद एक लिंक्स पर क्लिक करते-करते वे अनेक बीमारियों के बारे में पढ़ लेते हैं और उन्हें लगने लगता है कि उन्हें ही सारी बीमारी हो गई है। जिस कारण वे काफी परेशान हो जाते हैं जबकि बिना विशेषज्ञ की राय के कुछ कहना या किसी निष्कर्ष पर पहुंचना बिल्कुल गलत है। 

आदत छुड़ाने का प्रयास 

मुजफ्फरपुर बिहार के भगवानपुर इलाके के रहने वाले छात्र देवांची ने कहा, “डिजिटल युग में हर एक चीज केवल एक क्लिक दूर है। पढ़ने के लिहाज से स्मार्टफोन एक उपयोगी वस्तु है और शायद यही कारण है कि कुछ सरकारें बच्चों को स्मार्टफोन या टैबलेट बांट रही है मगर जिस प्रकार एक सिक्के के दो पहलू होते हैं, उसी प्रकार डिजिटल युग की खामियां भी हैं। मैं जब ऑनलाइन वीडियो देखने बैठता हूं तब किसी भी एक विषय के हजारों वीडियो आ जाते हैं। उनमें से कोई एक देख लेता हूं तब भी ऐसा लगता है कि कहीं कुछ छूट ना जाए तो बस एक के बाद दूसरा, तीसरा होते हुए कई वीडियो चल जाते हैं लेकिन कुछ ही वीडियो पूरा देख पाता हूं क्योंकि बीच-बीच में आने वाले प्रचार और फोन के नोटिफिकेशन के कारण पढ़ाई पूरी नहीं हो पाती। साथ ही पीडीएफ डाउनलोड करने की आदत के कारण लिखने की आदत कम हो गई है मगर धीरे-धीरे इस आदत को छुड़ाने का प्रयास कर रहा हूं।” 

दिल में संजोएं यादें 

डॉ. बिंदा सिंह कहती हैं, “डिजिटल युग पर निर्भरता को कम करने के लिए कोई दवाई काम नहीं करती। यहां केवल अपनी इच्छाशक्ति ही काम करती है और इस बात की स्वीकारिता भी कि हां, मुझे स्मार्टफोन का नशा है क्योंकि जब तक लोग स्वीकार नहीं करेंगे, तब तक बदलाव भी नहीं होगा। अपनी जीवन को अन्य लोगों से तौलने के बजाए, खुश रहना सीखें और आसपास घुमने निकलें। चैटिंग से ज्यादा मजा यक़ीनन सामने बैठ कर बात करने में आता है इसलिए अपनों के लिए वक्त निकालें। मोबाइल के कैमरे का प्रयोग अवश्य करैं पर पहले अपने दिल में यादों को संजोना सीखें।”  

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